दयनीय दशा में पहुँच गये हैं प्रवासी मजदूर : चतुरानन ओझा


अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रवीन्द्रन के नेतृत्व में एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है। यह रिपोर्ट देश के विभिन्न हिस्सों में लॉक डाउन के कारण फंसे हुए मजदूरों की वास्तविक स्थिति के ऊपर है। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए देश के विभिन्न हिस्से में फंसे हुए लगभग 12000 मजदूरों के बीच सर्वे कराया गया। इन मज़दूरों ने जो कुछ बताया वही हाल उनके आस पास रह रहे अन्य लाखों करोड़ों मज़दूरों का हाल है।  इस रिपोर्ट में जो पाया गया वह भयावह है। आज विभिन्न शहरों में फंसे हुए मजदूरों में से 96% मज़दूरों को कोई सरकारी राशन नहीं मिल पा रहा है, 78% लोगों के पास सिर्फ 300 या 300 से कम रुपए बचे हुए हैं, 50% लोगों के पास सिर्फ 1 दिन का राशन मौजूद है और 72% लोगों के पास 2 दिन का राशन मौजूद है। इसी रिपोर्ट में और भी पाया गया है कि विभिन्न मालिकों के पास काम कर रहे मजदूरों को उनका बकाया वेतन नहीं मिल पाया है या तो मालिकों का फोन स्विच ऑफ बता रहा है या फिर वे मजदूरी दे पाने में असमर्थता जता रहे हैं। सिर्फ 9% लोगों को ही मजदूरी के रूप में कुछ पैसा मिला है। पता चलता है स्थिति कितना विकट है! आप एक बार खुद कल्पना करके देखिए एक अनजान शहर में आप फंसे हुए हैं, आपके पास पैसा नहीं है, घर में राशन नहीं हैं, सरकारी मदद या सुविधा नदारद है, बाहर निकलने से ही पुलिस की मार पड़ रही है। घर मे वच्चे भूख से बिलख रहे हैं। इस स्थिति में आप या हम होते तो क्या करते? सोचकर ही रूह कांप उठती है। मुंबई में किसने भीड़ इकट्ठा की,  किसने साजिश रचा इस बात पर न्यूज़ चैनल वाले लगातार डिबेट करवा रहे हैं। और तो और स्टेशन के पास मस्जिद होने के कारण इसे सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की गई। लेकिन इस भीड़ के इकट्ठा होने के पीछे जो जो मूल सवाल है इस को दरकिनार कर दिया जा रहा है और वह है 'भूख', और जिंदा रहने की स्वाभाविक प्रवृत्ति। इस विषय पर कहीं कोई डिबेट नहीं दिख रहा है। 2 दिन पहले ही देश के सबसे जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्य सेन नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक साथ इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि यह सरकार लॉक डाउन की परिस्थिति में लापरवाही बरत रही है। जहां अमेरिका ने अपनी जीडीपी का 10% कोरोना मुकाबले के लिए, जापान ने अपनी जीडीपी का 21% कोरोना मुकाबले के लिए लिए खर्च कर चुका है वहीं भारतवर्ष अपनी जीडीपी का मात्र 0.9% ही खर्च करने का ऐलान किया है। यह भी पाया गया कि मोदी सरकार ने कोरोना पैकेज के रूप में  जिस रकम की घोषणा की है उसमें भी विश्लेषण करके देखा जाए तो 40% से भी ज्यादा हिस्सा पूर्व घोषित, पूर्व निर्धारित खर्च है जिसे कोरोना पैकेज के रूप में दिखा दिया गया है। सिर्फ 60% ही कोरोना पैकेज है। अर्थात आंकड़ा लगभग जीडीपी का 0.5% है। 


इन अर्थशास्त्रियों का कहना है अभी-अभी देश के जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया करानेके लिए 20 करोड़ क्विंटल अनाज के वितरण की आवश्यकता है। देश में अभी फिलहाल एफसीआई के गोदामों में 80 करोड़ क्विंटल अनाज मौजूद है। नई फसल आ रही है, अनाज रखने की जगह नहीं है, गोडाउन में अनाज चूहे खा रहे हैं ।सरकार को अब अनाज भंडारों को गरीबों के लिए पूरी तरह से खोल देना चाहिए। 


देश के अलग अलग हिस्सों से भूख और गरीबी के कारण मौत की खबर आ रही है। अभी भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है, अविलंब देश के अनाज भंडार को खोल देना चाहचाहिए, जिससे भूख से मौत के सिलसिले पर रोक लग सके।