वन महोत्सव सप्ताह के अंतिम दिन 7 जुलाई को विशेष :-
बलिया। समग्र विकास एवं शोध संस्थान बलिया के सचिव पर्यावरणविद् डाॅ० गणेश कुमार पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि भारतीय चिन्तन परम्परा एवं भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा अनादि काल से ही चली आ रही है। भारतीय संस्कृति प्राकृतिक अनुराग एवं प्रकृति संरक्षण की चिन्तनधारा है। भारतीय चिन्तन परम्परा में प्रकृति प्रेम इस कदर समाया एवं रचा- बसा है कि प्रकृति से जुदा अस्तित्व की बात हम सोच भी नहीं सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनि इतने उच्चकोटि के मनीषी थे कि वे जड़-चेतन सभी तत्वों के संरक्षण के विधान बनाए हैं। भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को ही आराध्य माना है और उनके संरक्षण की अवधारणा प्रस्तुत की है।
वन महोत्सव सप्ताह के अंतिम दिन डाॅ० पाठक ने खासतौर से वन संरक्षण एवं वृक्षारोपण के संदर्भ में भारतीय वाँगमय में प्रस्तुत अवधारणाओं के बारे में बताया कि हमारी संस्कृति में "वृक्ष देवो भव" अर्थात वृक्ष देवता होते हैं। इसी अवधारणा को लेकर वेदों, पुराणों, स्मृतियों, धर्म-अध्यात्म ग्रंथो, रामायण, महाभारत एवं एवं प्राचीन ग्रंथों में वन संरक्षण की बातें भरी पड़ी हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान के अनुसार विश्व में कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं है, जो औषधीय न हो। संभवतः इसी लिए "श्वेताश्वरोपनिषद" में वृक्षों को साक्षात ब्रह्म के समान मानते हुए कहा गया है कि- "वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः। "मत्स्य पुराण" में भी उल्लेख आया है कि- "दशकूप समावापी, दशवापी समोहृदः। दशहृदः समः पुत्रो, दश पुत्रो समोवृक्षः। अर्थात् दस कुँओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाब के बराबर एक पुत्र एवं दस पुत्र के बराबर एक वृक्ष होता है।
डाॅ० पाठक ने बताया कि वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम एवं अनुराग शायद ही किसी अन्य देश की संस्कृति एवं चिन्तन परम्परा में मिलता हो, जहाँ वृक्ष को पुत्र से भी उच्च दर्जा दिया गया है एवं उनकी पूजा की जाती है।, वहाँ वृक्षों की काटने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। किन्तु अंधाधुंध विकास एवं विलासितापूर्ण जीवन की आवश्कताओं की पूर्ति हेतु वनों का बेरहमी से विनाश किया गया और पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे हमारी बदलती सोच ने वृक्षों के संरक्षण के प्रति उदासीन हो गया।
वृक्षों को हमारे यहाँ सदैव से ही पूजनीय माना गया है और "भामिनी विलास" नामक ग्रंथ में कहा गया है कि-"धत्ते भरं कुसुमपत्रफला वली नां धर्मव्यथां,वहाति शीत भवा रूजश्च। यो देहमर्ययति चान्यसुखस्य हेतोस्तसमै, वादाव्य गुरवे तस्ये नमोस्तुते।" अर्थात् जो वृक्ष फूल, पत्ते एवं फलों के बोझ को उठाए हुए धूप की गर्मी एवं शीत की पीड़ा को सहन करता है एवं दूसरों के सुख के लिए अपना शरीर अर्पित कर देता है, उस वंदनीय श्रेष्ठ वृक्ष को नमस्कार है।
"नृसिंहपुराण" में भी वृक्ष को ब्रह्मस्वरूप मानते हुए कहा गया है कि- "एतद् ब्रह्म परं चैव, ब्रह्म वृक्षस्य तस्य तव।" जातक कथाओं में तो वृक्षों को हमारी सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाले कल्पवृक्ष के रूपमें माना गया है,यथा- "सर्वकामदाः वृक्षाः"। महाभारत एवं रामायण में कल्पवृक्षों का विवरण प्यस्तुत किया गया है। महाभारत के भीष्मपर्व में वृक्षों को सभी मनोरथों कै पूरा करने वाला माना गया है, यथा- "सर्वकामदाः फलाः वृक्षा।" महाभारत के ही आदिपर्व में किसी गाँव के अकेले फले-फूले वृक्ष को चैत्य के समान पूजनीय माना गया है-" एको वृक्षा हियो ग्रामे भवेत पर्णकलान्वितः, चैत्यो भवति निज्ञांतिर्चनीयः संपूजितः।" स्कन्दपुराण में उल्लेख आया है कि वृक्षों में विष्णु का वास होता है, यथा-"एको हरिः सकल वृक्षगतो विभाति।" अथर्ववेद में पीपल के वृक्ष को देवसदन कहा गया है-"अश्वत्थः देवसदनः।"
'विष्णुधर्म सूत्र' में कहा गया है कि प्रत्येक जन्म में लगाए गये वृक्ष अगले जन्म में संतान के रूपमें प्रापँत होते हैं।
'चाणक्यनीति' में उल्लेख आया है कि एक वृक्ष से वन उसी प्रकार सुन्दर लगता है, जिस प्रकार अकेले पुत्र से कुल, यथा- "एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगंधिना, वासितं स्याद वन सर्व सुपुत्रेण कुलं यथा।" 'वाराहपुराण' में कहा गया है कि जो व्यक्ति पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी का दो, आम के पाँच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी नरक में नहीं जाता है, यथा-"अश्वसःथमेकं पिचुमिन्दमेकं, व्यग्ग्रेषमेकं दसपुष्पजाती। द्वे-द्वे दाडिम मातुलुंगे पंचाग्ररोपी, नरकं न याति।"
तुलसी के पौधे को घर के प्रत्येक आँगन में लगाने की बात करते हुए कहा गया है कि जिस घर में तुलसी की नित्य पूजा की जाती है, उस घर में यमदूत भी नहीं आते हैं, यथा- " तुलसी यस्य भवने तत्यहं परिपूज्ये, तद्गृहं नोवर्सन्ति कदाचित यमकिंकरख।" इसी तरह विष्णुधर्म सूत्र, स्कंदपुराण एवं याज्ञ्वल्क्यस्मृति में भी वृक्ष कै काटने को अपराध माना गया है और जो वृक्ष काटता है, उसके लिए राजा द्वारा दण्ड का विधान बनाया गया है। जैन एवं बौद्ध साहित्य में वन यात्राओं एवं वृक्ष महोत्सवों का मनोहर वर्णन किया गया है, जो वन - वृक्षों एवं पशु-पक्षियों के संरक्षण की उद्दात भावना से ही प्रेरित है.। सुँगकुषाण कला में एवंक्षसिन्धु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा के चित्र अंकित हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तन परम्परा एवं भारतीय संस्कृति में वध संरक्षण की अवधारणाएँ कूट-कूट कर भरी हैं। आज आवश्यकता है इसे पुनः प्रयोग में लाने की एवं जनजागरुकता फैलाने की।