15 अगस्त पर विशेष :- भारत की आजादी में महिलाओं की भूमिका

*अरविन्द पाण्डेय*


*सलेमपुर देवरिया उ०प्रo* भारत की आज़ादी की लड़ाई का वर्णन अधूरा रह जाएगा अगर इसमें पुरुष समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले नारी समाज का ज़िक्र न किया जाये। घर की चारदीवारी में रहकर तो कभी साड़ी के पल्लू को सिर पर रखकर वीरांगाओं ने ब्रिटिश ताकत से लोहा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चूड़ियों वाले हाथों ने कभी तलवार उठाई है तो कभी रोटी बेलने वाले हाथों ने पिस्तौल चलाने में भी हिचक नहीं दिखाई है। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में भाग लेने वाली महिला सेनानियों में से कुछ नाम तो सब जानते हैं, लेकिन कुछ नाम ऐसे भी हैं,जिनके बारे में इतिहास के पन्नों में केवल कुछ शब्द ही लिखे गए हैं। आइये इनमें से कुछ नामों का परिचय जानने का प्रयास करते हैं:


*राजघरानों की महिलाएं*


दक्षिण भारत के कित्तूर की रानी चेन्नमा पहली भारतीय वीरांगना हैं जिन्होनें 1824 में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध बिगुल बजा दिया था। 1857 में गदर में आगे बढ़कर भाग लेने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए लखनऊ की रानी बेगम हज़रत महल ने अपने नाबालिग पुत्र को राजगद्दी सौंपकर स्वयं ब्रिटिश सेना का मुक़ाबला किया था।


मध्य्प्र्देश में इंदौर की रानी अहिल्याबाई और रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई ने भी अँग्रेजी सेना से लोहा लेते हुए अपने प्राणों की आहुती दे दी थी। आखरी मुगल बहादुरशाह जफर की बेगम ज़ीनत महल ने स्वतंत्रा सेनानियों का साथ देकर अपने देश प्रेम का परिचय दिया था।


इसी प्रकार छोटी-छोटी रियासतों की रानियों ने भी अपने-अपने स्तर पर आज़ादी-यज्ञ में अपना सक्रिय योगदान दिया था। अवध की तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी देवी और मिर्ज़ापुर रियासत की रानी तलमुंद कोइर के नाम इतिहास के पन्नों में कहीं नहीं मिलता है, लेकिन इनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।


*साधारण महिलाएं*


1857 के विद्रोह को हवा देने वाले मशहूर मंगल पांडे को चर्बी वाले कारतूस की सूचना अंग्रेज़ो की रसोई में काम करने वाली एक साधारण महिला लज्जों ने दी थी। इसके अतिरिक्त इसी विद्रोह की अग्नि में एक वीरांगना उदा देवी का नाम भी आता है जिन्होनें एक पेड़ पर चढ़कर 32 अंग्रेज़ सेनिकों को मार दिया था। इसी प्रकार मुजफ्फरपुर के छोटे से गाँव की महिला मुंडभर की महाविरी देवी और आशा देवी अँग्रेजी सेना का सामना करते हुए शहीद हो गईं थीं।


*तवायफ समाज*


समाज के इस हिस्से को कभी भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया था। लेकिन इसी समाज की कुछ महिलाओं ने वीर पुरुषों को भी पीछे छोड़ते हुए स्वतन्त्रता आंदोलन में अपना सक्रिय योगदान दिया है। लखनऊ की हैदरीबाई, अजीजनबाई और मस्तानी बाई वो नाम हैं जो आज भी समाज के हर हिस्से में सम्मान के साथ लिए जाते हैं। हैदरीबाई और मस्तानीबाई ने अपने पेशे का लाभ उठाते हुए महत्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारीयों तक पहुंचाने का काम करतीं थीं। अजीजन बाई ने मर्दाना भेष में महिलाओं की एक टोली बनाई थी जो नाना साहब और तात्या टोपे की मदद करतीं थीं और इसी दौरान अंग्रेजों की गोली का शिकार हो गई थीं।


बीसवीं सदी की महिलाएं:


बीसवी सदी के आरंभ के साथ भारतीय समाज में नारी जागरूकता का बिगुल बज चुका था। इसका सीधा प्रभाव आजादी की लड़ाई में महिला योगदान के रूप में दिखाई दिया इसका सबसे बड़ा प्रमाण गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में दिखाई दिया। इसमें उर्मिला देवी, बासंती देवी, सरोजनी नायडू, दुर्गाबाई देशमुख, कृष्णाबाई राम आदि इन महिलाओं की मुखिया रहीं थीं। असहयोग आंदोलन में सबसे आगे रहने वाले महिला नामों में सुचेता कृपलानी, राजकुमारी अमृत कौर, सरला देवी चौधरानी, मुथुलक्ष्मी रेड्डी, अरुणा आसफ अली और सुशिया नायर आदर से लिया जाता है। कस्तूरबा गांधी और कमला नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित भी अपने परिवार के एशोंआराम छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया था।


नेताजी सुभाष चंद्र बॉस की इंडियन आर्मी में डॉ लक्ष्मी सहगल ने चिकित्सक होते हुए भी महिला रेजीमेंट का नेतृत्व किया था। काकोरी कांड में लतिका घोष, बीना दास, कमला दासगुप्ता और कल्याणी दास के सक्रिय योगदान को शायद ही कोई जानता होगा।


*विदेशी महिलाएं*


भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में कुछ विदेशी महिलाओं के योगदान को भी भुलाना आसान नहीं है। फ्रांसीसी मूल की भीकाजी कामा ने 1907 में तिरंगा फहराकर,आज़ादी की लौ को लंदन, जर्मनी और अमरीका की संसद तक पहुंचाया था। लंदन में जन्मीं एनी बेसेंट ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार के लिए ब्रिटिश राज से बराबर पत्र व्यवहार किया था। इसके अलावा भारतीय होम रूल आंदोलन में भी आगे रहकर काम किया था। मारग्रेट नोबल जो सिस्टर निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हैं ने भी भारत की आजादी में अपना योगदान दिया था। लंदन की मैडलीन स्लेड जो मीरा बेन के नाम से जानी गईं, गांधी जी के अंत समय तक उनके साथ रहकर आंदोलन में सक्रिय रहीं।


इसके अलावा कोई भी भारतीय परिवार ऐसा नहीं था जिसकी महिलाओं ने पर्दे के पीछे रहकर अपना योगदान न दिया हो। कभी अपने घर में अँग्रेजी सिपाहियों से छिपते हुए क्रांतिकारियों को अपने घर में छिपा कर तो कभी दुर्गा भाभी के रूप में भगत सिंह की गोरी मेम पत्नी बनकर उन्होनें अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।


*जय हिन्द🙏*