ऐसा नहीं कि हमारे नेता उचित अनुचित नहीं जानते , या उन्हें इस बात कि समझ नहीं कि समाज की भलाई के लिये कौन सा कार्य उपयोगी है और कौन अनुपयोगी ।
जातीय तुष्टिकरण और सामाजिक विघटन के कार्य वे मुख्यतः दो कारणों से करते हैं ।
पहला और मुख्य कारण यह है कि जातीय तुष्टिकरण से एक लम्बे समय तक वह जाति बिशेष उनकी ब्यक्तिगत वोट बैंक बनी रहती है, जिससे वे लम्बे समय तक सत्तासुख का आनन्द लेते हैं ।
दूसरा कारण यह है कि जनता भी स्वजातिय नेता को ही देश और प्रदेश के मुखिया के पद पर आसीन करने की लालसा रखती है। विभिन्न वर्गो मे विभाजित जनता का इससे इगो की तुष्टि होती हैं और वर्गो मे विभाजित समाज मे उसे सर्वोपरि होने की अनुभूति होती है।इसीलिये कोई भी नेता स्वजातिय नेता को बढने से रोकने का बिपक्षी दल को हराने से ज्यादा ताकत लगाता है ।
सभी नेता जानते है कि धार्मिक उन्माद , वर्गीय विभाजन और जातीय तुष्टिकरण से समाज को कोई भला नहीं होनेवाला बल्कि नौकरियां, रोजगार, बुनियादी सुविधाये , सामाजिक भाईचारा मे बढोत्तरी से समाज का भला होना है। परन्तु इस लीक पर चलने से समाज का भला हो सकता है, राजनीतिक दल का भला हो सकता है परन्तु उनका कोई लाभ नहीं हो सकता ।
भारतीय पत्रकारिता भी राजनेताओ की जातीय और वर्गीय छवि ही गढने का काम करती है, न कि सामाजिक । हमारे देश में दलित नेता, पिछड़े नेता और सवर्ण नेता तो सभी होते रहे हैं परन्तु दलितों के नेता , पिछडो़ के नेता या सवर्णो के नेता यदाकदा और इक्का दुक्का ही हो पाते हैं ।v